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Mahatma Gandhi Jayanti Speech in Hindi For Students

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महात्मा गांधी के दर्शन की प्रासंगिकता आज भी है। इसमें संदेह नहीं है। अगर कहें आज अधिक है तो भी कोई बुरा नहीं है। पूरे विश्व में महात्मा गांधी को अहिंसा के पुजारी के रूप में याद किया जाता है या कहें कराया जाता है पर उस पर चलना कौन चाहता है? हम शेष विश्व  की क्या बात करें हमारे भारत में हिंसा का बोलबाला है।




    पूरे विश्व में हिंसा का दौर बढ़ता जा रहा और जितना यह बढ़ेगा उतनी ही बढ़ेगी गांधी जी की अहिंसा सिद्धांत की प्रासंगिकता। महात्मा गांधी ने भारत को आजादी दिलाई यह कहना कुछ अतिश्योक्ति मानते हैं तो कुछ लोग महात्मा गांधी को अप्रासंगिक सिद्ध करने के लिये हिंसा का समर्थन भी करते हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन दौरान  भी एक वर्ग हिंसा का समर्थक   तो दूसरा उदारवादी था जो महात्मा गांडीन  के साथ रहा। मगर यह दोनों ही प्रकार के वर्गों के प्रसिद्ध नाम  घूमते उसी आजादी के आंदोलन के एटिहासिक घेरे में ही हैं जिसका शीर्षक महात्मा गांधी के नाम से लिखा जाता है। इसी आंदोलन के कुछ नेताओं और शहीदों के नाम से कुछ अन्य लोग विचारधारायें चला रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि वह भारत जिसकी आयु साठ वर्ष की ही मानते हैं और उनके लिये भारतीय भाषाओं और संस्कृति की आयु भी इतनी ही हैं। इतना ही नहीं भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो उनके लिये पुराना पड़ चुका है और उसका अब कोई महत्व नहीं है। जहां तक अध्यात्मवादियों  का सवाल है वह वह भारत को न तो कभी  गुलाम हुआ मानते हैं न ही केवल राजनीतिक आजादीन का उनके लिए कभी महत्व रहा है।  उनके लिए यह केवल राजस बुद्धि वालों का  भ्रम है की वह आपसी संघर्षों से समाज को नियंत्रित करने का दावा करते हैं जबकि यह कार्य प्रकृति  स्वयं करती है। अगर सही आंकलन करें तो आज के समाज में गरीबी, भ्रष्टाचार, भय, और अपराध के विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों को इसी अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिये क्योंकि महात्मा गांधी आज के लोकतांत्रिक समाज में राज्य का विरोध करने के लिये हिंसा के पुराने तरीके हिंसक तख्ता पलट की जगह इसे सही मानते थे। आपने इतिहास में देखा होगा कि अनेक प्रकार के राजा जनता की नाराजगी के कारण हिंसा का शिकार हुए या उनका तख्ता पल्टा गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय का अवलोकन करें तो उस समय कार्ल मार्क्स  का प्रभाव बढ़ रहा था और उसके चेले व्यवस्था का बदलाव हिंसा के सहारे कर रहे थे जबकि लगभग उसी समय महात्मा गांधी ने आंदोलनों को अहिंसा का मार्ग दिखाया। यही पश्चिम के गोरे लोग चाहते थे पर अंततः उनको भी यह देश छोड़ना पड़ा पर वह छोड़ते हुए इस देश में हिंसा का ऐसा इतिहास छोड़ गये जिससे आज तक यहां के निवासी भुगत रहे है।

               मूल बात यही है कि महात्मा गांधी आधुनिक समाज के संघर्षों में हिंसक की बजाय अहिंसक आंदोलन के प्रणेता थे। उनकी याद भले ही सब करते हों पर हथियारों के पश्चिमी सौदागर और विचारों के पूर्वी विक्रेता उनसे खौफ खाते हैं। गनीमत है पश्चिम वाले एक दिन महात्मा को याद कर अपने पाप का प्रायश्चित करते हैं पर पूर्व के लोग तो हिंसावाद को ही समाज में परिवर्तन का मार्ग मानते हैं। यहां यह भी बता दें कि महात्मा गांधी राज्य चलाने के किसी सिद्धांत के प्रवर्तक नहीं थे क्योंकि उसके लिये आपको सत्ता की राजनीति करनी पड़ती है जिसका आंदोलन की राजनीति से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। इसलिये ही सारी दुनियां की सरकारें महात्मा गांधी को याद करती है ताकि उनके विरुद्ध चलने वाले आंदोलन हिंसक न हों।

              यहा बता दें की हिंसक या आहिसक आंदोलनों से सत्ता या सरकार  बदलना एक अलग बात है पर राज्य को सुचारु तरीके से चलाना एक अलग विषय है। महात्मा गांधी कम से कम इस विषय में कोई ज्ञान नहीं रखते थे। यही कमी उनको एक पूर्ण राजनेता की पदवी देने से रोकती है।  यः  देश हजारों वर्ष पुराना है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान तो जीवन जीने की ऐसी कला सिखाता है कि पूर्व और पश्चिम दोनों ही उसे नहीं जानते पर अपने ही देश के लोग उसे भूल रहे हैं। दक्षिण एशिया जहां एक नहीं बल्कि तीन तीन अहिंसा के पूजारी और प्रवर्तक हुए वहां हिंसा का ऐसा बोलबाला है जिसकी चर्चा पूरे विश्व में हैं। पाकिस्तान के कबाइली इलाके हों या हमारे पूर्वी हिस्से। धार्मिक और राजनीतिक क्रूर सिद्धांतों की जकड़ में हैं। एक बात यकीनी तौर से मानिए कि आज के संदर्भ में कोई भी आंदोलन गरीबों और शोषकों के नाम पर सफल होता है पर किसी का भला हो यह नहीं दिखता। हकीकत तो यह है कि इन आंदोलनों को पैसा भी मिलता है। अब यह पैसा कौन देता है यह अलग से चर्चा का विषय है। इसी पैसे के लिये व्यसायिक आंदोलनकारी किसी विचाराधारा या नारे को गढ़ लेते हैं। अगर वह हिंसा का समर्थन न करें तो शायद उनको वह पैसा न मिले। साफ बात कहें तो इन हिंसक आंदोलनों की आड़ में पैसा देने वाले कुछ न कुछ आर्थिक लाभ उठाते हैं। ऐसे में उनके लिये गांधी का अहिंसा सिद्धांत का धोखे की टट्टी है। तब भी वह अधिक दूर नहीं जाते। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान शहीद हुए गरमपंथी महापुरुषों की तस्वीरें लगाकर उनका प्रचार करते हैं। साथ ही गांधी जी की आलोचना करने से उनको कोई गुरेज नहीं है।

              सबसे बड़ी बात यह है कि इस देश का इतिहास साठ साल पुराना नहीं है। अब एक दूसरी बात यह है कि हम आजादी की बात करते हैं पर आज जब उस आजादी पर चर्चा होती है तो अनेक प्रकार के सवाल भी आते हैं। आखिर गांधी जी किससे आजादी चाहते थे? केवल गोरी चमड़ी से या उनके राज्य से। याद रखिये आज भी इस देश में अंग्रेजों के बनाये हुए कानून चल रहे हैं। इनमें से तो कई ऐसे हैं जो इस समाज को निंयत्रित करने के लिये यहीं के लोगों ने उनको सुझाये होंगे। इनमें एक वैश्यावृत्ति कानून भी है जिसे अनेक सामाजिक विशेषज्ञ हटाने की मांग करते हैं।  उनका मानना है कि यह कथित रूप से कुछ अंग्रेजपरस्त लोगों ने इस बनवाया था ताकि भारत की सामाजिक गतिविधियों को मुक्त रूप से चलने से रोक जा सके।  डूसरा जूआ का भी कानून है। अनेक विद्वान समाज सुधार में सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी हैं और वह मानते हैं कि यह सरकार काम नहीं है। अनेक विद्वान समाज सुधार में सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी हैं और वह मानते हैं कि यह सरकार काम नहीं है। अपराधी रोकना सरकार का काम है न कि समाज के संस्कारों की रक्षा करना उसकी कोई जिम्मेदारी है। कुछ लोग कहते हैं कि वैश्यावृत्ति, जुआ या व्यसनों की प्रवृत्ति पर अंकुश रखना सरकार का काम नहीं बल्कि यह समाज का स्वयं का दायित्व है। कहने का मतलब है कि लोग यही मानते हैं कि समाज स्वयं पर नियंत्रण करे न करे तो वही दायी है। जो आदमी व्यसन या बुरा काम करता है तो अपनी हानि करता हैै। हां जहां वह दूसरे की हानि करता है तो बहुत सारे कानून है जो लगाये जा सकते हैं। लोग तो सतीप्रथा वाले कानून पर सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि उस समय या उससे पहले कितनी स्त्रियां इस देश में सती होती थीं। जिनको होना है तो अब भी इक्का दुक्का तो अब भी घटनायें होती है। वैसे ही अगर किसी स्त्री को जबरन सती कर दिया जाता है तो हत्या का अपराध या वह स्वयं होने के लिये तत्पर होती है तो आत्महत्या का कानून उस पर लग सकता है तब सती प्रथा रोकने के लिये अलग से कानून की जरूरत क्या थी?


                         एसा लगता है कि अंग्रेजों की नजरों में बने रहने के लिये अनेक लोगों ने उस समय अनेक प्रकार के सामाजिक सुधार आंदोलन चलाये होंगे। इस तरह समाज में सरकारी हस्तक्षेप की प्रवृत्ति बढ़ी जिसका अनेक सामाजिक विशेषज्ञ विरोध करते रहे हैं। सीधा मतलब यह है कि अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत छोड़ गये। वह भी इसलिये कि महात्मा गांधी यहां प्रासगिक नहीं रहें। वैसे भी अपने देश में उनको किस प्रसंग में याद किया जाये? हां, इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के युग में अपनी अभिव्यक्ति या आंदोलन के लिये उनका सिद्धांत अति प्रासंगिक हैं। उनको इसलिये नमन करने का मन करता है।
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